मंगलवार, 25 जुलाई 2017

अतीत का जरायम पेशा कानून से शाषित मीना और आज के नक्सली ?

अंग्रेजों द्वारा गुलामी का विरोध करने बाले और हजारों साल से अपनी जल, जंगल जमीन को पाने के लिए गोरिल्ला पध्दति से हमले, लूट मार करने और अमीरों के धन गरीबो में बांटने बाले लोगो को किसी समय डकैत, चोर, अपराधी कहा गया और आजादी का संघर्ष करने बाले लोगो और समुदायों पर जरायम पेशा कानून लाद कर दमन करने का प्रयास किया गया । जिसमे जरायम पेशा कानून से शासित जातियां राजाओं और अंग्रेजो की पुलिस के रहमोकरम पर जिंदा थी । आज जिन अत्याचारों की बात नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासियोँ पर होने की जानकारी मिल रही है उसी तरह के अत्याचार जरायम पेशा कानून से शासित जातियों और भी होते थे।  उन की कहीं सुनवाई नहीं थी , बेगुनाहों को जेल में डाल दिया जाता था, छोटे छोटे बच्चो को अपराधी घोसित कर के थानों में हाजरी लगाई जाती ।  जन्म से ही बच्चे को अपराधी माना जाता । एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने के लिए थानेदार के पैरों पर गिड़गिड़ाना पड़ता और लिखित में इजाजत ले कर जाना पड़ता । इस इजाजत के लिए क्या समझौते किये जाते उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है । किसी की मजबूरी का फायदा किस रूप में उठाया जाए ये थानाधिकारी की इच्छा पर निर्भर था।  जरायम पेशा कानून जो अत्याचार और अमानवीयता का दूसरा नाम था वो राजस्थान की मीना जनजाति पर भी लागू होताथा ।  Ravindra पड़ेवा जी के शोध के मुताविक इस कानून को मीना जनजाति को कुचलने के लिए लाया गया था क्योकि इस कानून को लागू करने से पूर्व हुई चर्चा में इस जनजाति का विशेष जिक्र किया गया था ।  मीना जनजाति जिसने हमेशा विदेशी आक्रमणकारियों से टक्कर ले कर अंदरूनी भारत की रक्षा करी उसने बलबन के समय एक लाख मीनाओ के सर की कुर्वानी दी थी तो राजपूत काल में इन्ही मीनाओ को जिंदा जला कर राज सत्ता और भूमि से बेदखल किया गया लेकिन इस जनजाति ने अपने जल जंगल जमीन को पाने के प्रयास नहीं छोड़े और जंगलों में मेवासे बना कर अपने अधिकार को पाने के लिए राजा महाराजा, बादशाह, अंग्रेजो को हमेशा चुनोती देते रहे । शोषण और प्रतिरोध का ये दौर काफी लंबा रहा लेकिन अंग्रेजो के जरायम पेशा एक्ट ने शोषण की सारी हद पार कर दी । मीना समाज के प्रथम पीढ़ी के समाज सुधारकों ने इस अमानवीय एक्ट के अहिंसात्मक विरोध प्रारम्भ किया और राजाओं के अत्याचार सहे और जेल भी काटी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जरायम पेशा कानून का विरोध शुरू हो चुका था जिसका समर्थन तत्कालीन कोंग्रेस और उसके लीडरों ने भी किया । अहिंसात्मक आंदोलनों के परिणाम सकारात्मक निकला और राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन भी मिला साथ ही भारत की आजादी के साथ ये एक्ट भी समाप्त कर दिया गया । नक्सलवादी राह पर चलने बाली मीना जनजाति के प्रथम पीढ़ी के समाज सुधारकों जिनमे गणपतराम बगरानिया जी, लक्ष्मीनारायण झरवाल जी, बद्री प्रसाद दुखिया जी, गोविन्दराम जी, भीम सिंह जी, काला बादल जी, अडिसाल जी, नोरावत जी, पंडित बंशीधर शर्मा जी, राजेन्द्र कुमार अज्ञेय जी और बहुत से प्रमुख नाम शामिल है ने एक तरफ अमानवीय कानून जरायम पेशा कानून, ददरासी कानून का विरोध किया तो दूसरी तरफ समाज के विकास का रोडमेप शिक्षा के रूप में चुनते हुए जातीय सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जिसका सकारात्मक परिणाम भी मिला ।  नक्सलवादी क्षेत्र के आदिवासियो और कश्मीर के पत्थरवाजों  के लिए मीना समाज का ये इतिहास प्रेरक हो सकता है । अन्याय का विरोध होना आवश्यक है लेकिन तरीका लोकतांत्रिक होना जरूरी है ।  मीना आदिवासियो ने भी लाखों सर कटाने और जिंदा जला दिए जाने पर भी हार नहीं मानी थी और सैंकड़ो साल तक संघर्ष करते रहे लेकिन अधिकार लोकतांत्रिक भारत में अहिंसात्मक आंदोलनों से ही मिले , नक्सलवादी आदिवासियो को भी अपने अधिकार लोकतांत्रिक तरीके से पाने की सोच रखनी होगी और शिक्षा को एक अस्त्र बना कर विकास को पाने की सोच डेवलप करनी होगी । सरकार को भी इस बात को महशुश कर लेना चाहिए की जिन आदिवासीयों हजारों साल से मुगल बादशाह और अंग्रेज न हरा सके उन्हें बंदूक के बल पर नहीं जीता जा सकता यूं भी आदिवासी कटना पसन्द करता है झुकना नहीं । आदिवासीयों को सिर्फ प्रेम से जीता जा सकता है न की बंदूक से । नक्सलवाद की समस्या का समाधान न तो नक्सलियों की बंदूक से सम्भव है और न ही सरकार की बंदूक से । 
(जरायम पेशा कानून के खिलाप बुलंद आवाज परम आदरणीय लक्ष्मीनारायण झरवाल जी के देहावसान पर विशेष )
### डी एस देवराज ###

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